Monday, February 25, 2013

प्रयाग यात्रा


स्वर्ग तो चाहे फिर मिल जाए, ये संगम जाने मिले न मिले
अपने शहर रोहतक से 16 घंटे का सफर करके महाकुंभ की पावन धरती पाँव रखने का वो एहसास, अपने माता-पिता को उनके जीवन का पहला कुंभ स्नान करवाना, वो स्नान जिसे स्वर्ग का रास्ता कहा जाता है, अपने केस को दान करने का वो कर्म, ये सब करके कौन जाने धरती के बाद स्वर्ग मिलेगा या नहीं, मैं नहीं जनता, पर जब तक धरती पर है, ये सुकून तो मिलेगा कि हमने अपने धर्म के अनुसार एक अच्छा काम किया है और हम मरणोपरांत स्वर्ग की यात्रा करेंगे।
इस बारे मे कई बुद्धिजीवियों को कई बार चर्चा करते सुना है कि स्नान करके कैसे स्वर्ग जया जा सकता है। दरअसल क्या है जब किसी धर्म के कुछ लोग जब ज़्यादा पढ़ लिख कर अधिक ज्ञानवान हो जाते है तो फिर वो उसी धर्म पर उँगलियाँ उठाने लगते है। वो ज़्यादा व्यावहारिक हो जाते है, उन्हे लगता है राम बुरे पति थे। उन्हे लगता है कि राजा राम को अपनी प्रजा की बात न मान कर अपनी पत्नी को वरीयता देनी चाहिए थी। दरअसल, वो खुद अच्छे पति है न, राज्यसभा संसद है, काम कुछ है नहीं, जवाबदेही सिर्फ पत्नी कि तरफ, वो अच्छे शासक नहीं है, अच्छे पति है। राजा राम अच्छे शासक भी थे और अच्छे पति भी। जय श्री राम।
खैर, हम उनकी बात क्यूँ करे, हम बात करते है वहाँ के बंदोबस्त की। सारे बंदोबस्त बस्ते मे बंद थे, शायद कुंभ के बाद खोले जाएंगे। वहाँ लोगों की आस्था के अलावा बाकी सब बकवास था, चाहे वो उ.प्र. सरकार का 1800 करोड़ रुपये लगाकर महकुंभ सफल बनाने की बात थी, चाहे वो रेलो का किराया बढ़ा कर उनमे बेहतर सुविधाएं (जैसे कि रेलों एवं उसके शौचालयों की साफ सफाई, रेलों की गति बढ़ाना, स्टेशनों पर सुरक्षा चौकस करना, गाड़ियों को एलईटी न करने कि कवायद) प्रदान करने कि बात थी (शायद वो केवल राजधानियों और शताब्दियों के लिए ये सब कह रहे थे), चाहे गंगा-यमुना के पानी को साफ रखने के केंद्र व राजी के सरकारी दावे।
खैर, हम उनकी बात क्यूँ करे, पर हाँ, एक और बात अच्छी थी, कुंभ की देखरेख सौंपी गयी थी उ.प्र. के मंत्री मो. आज़म खान को। आज़म खान, जी हाँ, एक मुसलमान। हिंदुओं के सबसे बड़े पर्व की देख रेख कर रहे है एक मुसलमान। इलाहाबाद जंक्शन से लेकर संगम तट तक के सुरक्षा और अन्य सभी इंतजामों की ज़िम्मेदारी ली गयी थी माननीय आज़म भाई के द्वारा, शायद इसीलिए ज़्यादा हादसे नहीं हुये, ज़्यादा लोग नहीं मरे, पुलिस ने भी स्टेशनों पर पूरा सहयोग दिया। आज़म भाई को ये जिम्मा सौंपने की दो विपरीत वजहें हो सकती है। या तो ये कि इस देश मे मजहब जैसा कुछ नहीं है, हर इंसान हर चीज़ को समझता है। या फिर ये कि ये हिंदुस्तान है, यहाँ हर चीज़ के पीछे कोई खास सोच समझ नहीं होती, पर्ची पर नाम लिख कर फैंसले लिए जाते है। आप अपनी वजह चुन सकते है।
खैर, हम उनकी बात क्यूँ करे, हम बात करते है मेरी माताजी की जिनके लिए हर यात्रा यातना के बराबर होती है पर मैंने इस यात्रा के बाद देखा कि उनमे एक नया जोश और विश्वास था। जाने से पहले उन्होने अपनी सारी सहेलियों को नहीं बताया था कि वो प्रयाग मे महाकुंभ स्नान के लिए जा रही है क्यूंकी उनकी स्वीकृति अंतिम समय पर ही मिली थी क्यूंकी उन्हे दर था की कहीं ये लंबी यात्रा भी यातना न बन जाए। पर जब वहाँ से लौटने पर उन्होने अपने मंदिर की सारी भजन मंडली को प्रशाद और थोड़ा थोड़ा स्नागम का जल बांटना शुरू किया, तो वो आश्चर्यचकित हो गयी ये सुनकर कि उनकी सारी सहेलियाँ उनके साथ जाना चाहती थी, एक-दो तो लड़ने भी लग गयी के मुझे साथ क्यूँ नहीं लेकर गयी। यही हाल पिताजी के पड़ोसी दुकानदारो का भी था। उन्होने घर पर आके जब मुझे ये बताया तब मुझे एहसास हुआ कि कुछ अच्छा तो किया गया है मेरे द्वारा।
आप सभी से ये कहना है कि हो सके तो इन्ही बचे हुये दिनो मे आप भी पुण्य कमा आइए नहीं तो अगला कुंभ बारह साल बाद लगेगा। जय महाकुंभ।

No comments:

Post a Comment